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Channel: एकला चलो – NavBharat Times Blog
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कल और आएंगे लफ़्ज़ों की झिलमिल चादर बुननेवाले...

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नवभारत टाइम्स ब्लॉग पर 19 सितंबर 2009 से शुरू हुआ एक सफ़र आज क़रीब साढ़े आठ साल बाद समाप्त होने जा रहा है। इस दौरान मैंने आपसे कई दफ़ा बातचीत की। आज गिना तो पाया कि यह संख्या ढाई सौ से कुछ ही कम है। मैं जानता था कि मेरे विचारों से सहमत होनेवाले लोग आज की तारीख़ में बहुत कम हैं, इसीलिए मैंने अपने ब्लॉग का नाम रवींद्रनाथ टैगोर की कविता से प्रेरित होकर ‘एकला चलो’ रखा था।

जब देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिंदू-मुस्लिम की राजनीति की, तब मैंने उनकी सांप्रदायिक राजनीति के ख़िलाफ़ लिखा लेकिन जब उन्होंने ग़रीबों के लिए कुछ अच्छी योजनाएं शुरू कीं तो मैंने उनकी जमकर तारीफ़ भी की। 2012 ओलिंपिक्स में चीनी प्रतिद्वंद्वी के चोटिल हो जाने की वजह से कांस्य पदक जीतनेवाली साइना नेहवाल की जीत को मैंने अधूरी जीत बताया तो महाराष्ट्र और मराठियों के साथ पक्षपात न करने के लिए सचिन को ग्रेट भी कहा। बिना शादी के किसी पुरुष से शारीरिक संबंध रखनेवाली लड़कियों का मैंने पक्ष लिया तो कभी I love you नहीं कहनेवाली पत्नियों के अबोले प्यार पर भी लिखा। समलैंगिक संबंध रखनेवालों के अधिकारों का साथ दिया तो 24 घंटे के प्यार के सामने दस मिनट के सेक्स की तुच्छता भी बताई।

ये सारे ब्लॉग वैचारिक ब्लॉग थे जो मैंने किसी तात्कालिक घटना पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखे, आपने कॉमेंट किया, मैंने जवाब दिया और मामला दो-चार दिनों में ख़त्म हो गया। लेकिन कुछ ब्लॉग ऐसे थे जिनको लिखते समय मुझे लग रहा था जैसे मैं अपने किसी अंतरंग दोस्त के सामने अपना दिल खोलकर रख रहा हूं। जब मैंने अपने पहले ही ब्लॉग में अपने उन गुनाहों की चर्चा की जिनकी स्मृतियां अब भी मेरे मन में कांटों की तरह गड़ी हैं, जब मैंने अपने अजन्मे बेटे की भ्रूणहत्या का अपराध आपके सामने स्वीकार किया, जब मैंने गैंगरेप का शिकार हुई एक परिचिता की चरम पीड़ा उसी के शब्दों में आपके सामने रखी, जब मैंने ऋषिकेश में साध्वी के रूप में रहनेवाली किशोरावस्था की अपनी प्रेमिका से साल के आखिरी दिन हुई मुलाक़ात का वर्णन किया और पिछले ही दिनों जब मैंने हेल्मेट न पहनने के कारण हुई मेरी प्यारी भाभी की मौत का दुख आपके साथ साझा किया तो हर बार मुझे लगा जैसे मैं अपने किसी अज़ीज़ के सामने आंसू बहा रहा हूं और उसके हाथ मेरे कंधे थपथपाते हुए मुझे दिलासा दे रहे हैं।

मैंने ऊपर लिखा है कि पहले मैं मानता था कि ब्लॉग के इस सफ़र में मुझे अकेले ही चलना होगा और इसीलिए इसका नाम ‘एकला चलो’ रखा लेकिन सच मानिए, इन सालों में कभी भी नहीं लगा कि मेरा यह सफ़र अकेलेपन का सफ़र  था। इस सफ़र में मैंने जाना कि विचारों में भिन्नता हो तो भी हम एकसाथ चल सकते हैं। कई बार ऐसा भी हुआ कि मैंने महीनों नहीं लिखा। सोचता था, क्या लिखूं, क्यों लिखूं और किसके लिए लिखूं। मेरे लिखने से किसी के विचार तो बदलेंगे नहीं – जो जैसा मानते हैं, वैसा ही मानते रहेंगे। लेकिन तभी कोई फ़ोन आ जाता या कोई मेल कि बहुत दिनों से आपने कुछ नहीं लिखा, इस बीच कई महत्वपूर्ण घटनाएं हो गईं लेकिन आपकी राय जानने को नहीं मिली। ऐसे फ़ोन और मेल आने के बाद मैं फिर लैपटॉप लेकर बैठ जाता था यह सोचकर कि मेरे ब्लॉग के लिए यदि दस लोग भी बाट जोहते रहते हैं तो मुझे कम-से-कम उन दस लोगों के लिए ज़रूर लिखना चाहिए।

लेकिन यह लिखना अब बंद होगा क्योंकि नवभारत टाइम्स को विदा कहने का वक्त आ गया है। हर ट्रेन का एक स्टेशन ऐसा होता है जहां यात्री को उतरना ही होता है। उसके बाद या तो उसकी यात्रा ख़त्म हो जाती है या फिर आगे की यात्रा शुरू होती है। मुझे नहीं पता कि मेरी यात्रा अब हमेशा के लिए ख़त्म हो रही है या आगे कोई और यात्रा है।

मुझे इस बात की कोई ख़ुशफ़हमी नहीं है कि पिछले साढ़े आठ सालों में मैंने जो ढाई सौ के क़रीब ब्लॉग लिखे हैं, वे कोई महान रचनाएं हैं। आम बोलचाल की भाषा में मैंने लिखा और वही लिखा जो उस दिन और उस घड़ी मुझे सही लगता था। हो सकता है, कभी-कभी किसी घटना या व्यक्ति के बारे में मेरा निष्कर्ष और आकलन ग़लत रहा हो क्योंकि मेरे ज्ञान और मेरी समझ का दायरा सीमित हैं। लेकिन इतना तो सौ फ़ीसदी सच है कि जब लिखा और जो लिखा – वह पूरी ईमानदारी से लिखा।

मुझे यहां अपने पहले संपादक स्व. राजेंद्र माथुर की कही एक बात याद आ रही है। एक इंटरव्यू (या स्पीच) में माथुर जी ने पत्रकारों पर पड़नेवाले दबाव के बारे में कहा था, ‘मैं यह तो नहीं कह सकता कि मैं जो कुछ चाहता था, वह हमेशा लिख पाया। लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूं कि जो नहीं लिखना चाहता था, वह कभी नहीं लिखा।’

मुझे संतोष है कि अपने 34 साल लंबे करियर मैंने भी वैसी कोई चीज़ कभी नहीं लिखी जिसकी गवाही मेरा मन नहीं देता था।

नवभारत टाइम्स के ब्लॉग पर इतने सालों तक मेरा साथ देने का बहुत-बहुत शुक्रिया। आप पढ़ते थे, इसीलिए मैं लिखता था। आप टिप्पणी करते थे, इसीलिए मैं लिखता था। आप न होते तो यह लिखना भी न होता। आप न होते तो दुख की घड़ियां मैं किसके साथ बांटता! लेकिन यह नहीं मैं इस ट्रेन से उतर रहा हूं तो आप भी उतर जाएं। इस ट्रेन में और भी यात्री हैं, नए भी हैं और पुराने भी हैं। उनसे चर्चा जारी रखिए। जो प्यार मुझे दिया, वह उनको भी देते रहिए। तब तक मैं साहिर के इस अमर गीत को (थोड़े फेरबदल के साथ) गुनगुनाते हुए आपसे विदा लेता हूं।

कल और आएंगे लफ़्ज़ों की झिलमिल चादर बुननेवाले, मुझसे बेहतर लिखनेवाले, तुमसे बेहतर पढ़नेवाले…

मैं तो इक अदना ब्लॉगर हूं….


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